निमंत्रण आर्य समाज का (2) - स्व. पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी Submitted by AnandBakshi on Thu, 2009-03-19 15:52.
आर्य समाज
.... अच्छा और उचित भोजन न दोगे तो अनुचित भोजन खाने पर लोग बाधित होंगे | यही कारण है कि जब उचित ईश्वरवाद से मुंह मोड़कर लोग नास्तिक बन गए तो नास्तिकों में भी भूत-प्रेत या कल्पित वस्तुओं और कब्रों की पूजा आरम्भ हो गई | इसलिए ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के पहले दो नियमों में ईश्वर के ठीक ठीक स्वरूप का वर्णन किया | (अब गतांक से आगे)
अर्थात् 1. ईश्वर एक ऐसी सत्ता है जो सारे जगत् का आदिमूल है |
2. जगत् मिथ्या नहीं है | यदि जगत् मिथ्या होता तो आदि मूल भी मिथ्या होता | उपनिषद् कहते हैं - " कथं असतः सत् जायेत" अर्थात् असत् से सत् उत्पन्न नहीं हो सकता और सत् से असत् उत्पन्न नहीं हो सकता "नाभावो विद्यते सतः" यह गीता का वाक्य है |
3. उस आदिमूल सत्ता का दूसरे नियम में वर्णन है अर्थात् वह सच्चिदानन्द ! एकरस है, आकृति वाला नहीं है, निराकार है | क्योंकि रूप रंग आदि आकार तो भौतिक है | भौतिक चीजें अनित्य होती हैं | ईश्वर अनित्य नहीं, अनित्य तो जगत् है | ईश्वर अवतार भी नहीं लेता | और कोई जड़ पदार्थ ईश्वर का स्थानापन्न नहीं बन सकता |
4.इसलिए सब प्रकार की मूर्तियां जो ईश्वर के स्थान में पूजी जाती हैं कल्पित और भ्रमात्मक हैं और आध्यातमिक दृष्टि से सर्वथा अनुचित और हानिकारक हैं| सब प्रकार की मूर्तिपूजा को बन्द कर देना चाहिए | जितनी मूर्तियां पशु-पक्षियों के आकार की जैसे शेषनाग की, या नर-पशु की मिली हुई जैसे जैसे गणेश या नरसिंह की, या पीपल, वट आदि वृक्षों की, या राम, कृष्ण, विट्ठल या मरियम आदि की, सभी का पूजना पाप है | मरे हुए महात्माओं की कबरों की पूजा पत्थर की मूर्तियों को पूजने के समान ही अनुचित है | यह वस्तुतः ईश्वर पूजा है ही नहीं |
5. ईश्वर की पूजा एक आध्यात्मिक कर्म है | अर्थात् अपने अन्तःकरण में उस सत्ता पर विचार करना जिसकी व्यवस्था में यह जगत् चल रहा है | हाथ जोड़ना, सिर को नमाना, सिजदा करना, दण्डवत् करना, फूल या जल चढ़ाना - ये सब ईश्वर पूजा की भ्रमात्मक रीतियां हैं |
6. भिन्न भिन्न अवतार मानने वालों ने जब अलग-अलग अवतार,अलग-अलग पैगम्बर या अलग-अलग सन्त माने तो पूज्य पदार्थों की भिन्नता के कारण पूजकों के भी अनेक सम्प्रदाय बन गए | मन्दिरों और मस्जिदों पर झगड़े हुए | ईसा की जेरूसलम की कब्र को हथियाने के लिए ईसाइयों और मुसलमानों में जो सलीब के युद्ध हुए वो कई शताब्दियों तक मानव संहार करते और कराते रहे | यदि मनुष्य बुत-परस्ती, कबर-परस्ती, मर्दुमपरस्ती छोड़ कर उस विशाल सत्ता का ध्यान करता है, जो प्रत्येक देश् और प्रत्येक काल में हमारे दिलों में विद्यमान रहती है, तो अवश्य ही धर्म के माथे पर मानव संहार के कलंक का टीका न लगता |
आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य है कि मनुष्य मात्र के हृदय में सच्ची आस्तिकता की शुभ भावना उपजे |
तीसरे नियम में 'वेद' के पढ़ने और पढ़ाने, सुनने और सुनाने, मानने और मनवाने का संकेत है | 'वेद' न केवल मनुष्य जाति की प्राचीनतम पुस्तक है, अपितु उसमें मनुष्य की लौकिक और आलौकिक उन्नति के ऐसे नियम दिए हैं कि हम सैकड़ों बुराइयों से बच सकते हैं | मनुष्य समाज के निर्माण और सांसारिक जीवन व्यतीत करने के जो नियम वेद में दिए हैं वैसे किसी भी पुस्तक में पाए नहीं जाते | यों तो संसार में, भिन्न भिन्न देशों और भिन्न भिन्न युगों में अनेक महात्मा सुधारक हुए जिन्होंने मनुष्य को गलत रास्ते से बचाया | परन्तु उनके सुधार एकाङ्गी थे | सुधार के साथ-साथ उनसे बिगाड़ भी हुआ है | जैसे कुछ् अत्याचारियों के आक्रमण से बचने के लिए हिन्दुओं ने बाल-विवाह की प्रथा जारी की | परन्तु जब यह प्रथा चल पड़ी तो इसने देश और जाति को कमजोर कर दिया | इसी प्रकार जब मुसलमानों ने मूर्तिपूजा का विरोध किया तो मस्जिदों से मूर्तियां निकाल दी गयीं परन्तु जैसे मूर्तिपूजक मूर्तियों के समक्ष दण्डवत् किया करते थे उसी प्रकार मुसलमानों का सिजदा जारी रहा | जैसे हिन्दु लोग काली माई के समक्ष बकरा चढ़ाते हैं उसी प्रकार मुसलमान लोग भी बकरी, गाय, ऊटंनी की कुर्बानी करते हैं कि जन्नत (स्वर्ग) में बैठा हुआ ईश्वर प्रसन्न होगा अन्यथा कुर्बानी का कोई अर्थ नहीं | जब एक हिन्दु काली माई पर बकरा चढ़ाता है तो वह एक ऐसी निर्दयी स्त्री की याद करता है जो पशुओं को मारकर खाती होगी | परन्तु मुसलमानों के अल्लाह के लिए तो वे ऐसा नहीं मानते कि अल्लाह पहले कभी पशुओं को मारकर खाया करता हो | वस्तुतः एकांगी सुधार वास्तविक सुधार नहीं | इस प्रकार आध्यात्मिक रोग उस समय तक दूर न होंगे जब तक वेदों का प्रचार न हो, धर्म का मौलिक सुधार किया जाए | आर्यसमाज का यह मुख्य उद्देश्य है जैसे सूर्योदय होने पर भिन्न भिन्न प्रकार के दीपकों के झगड़े मिट जाते हैं इसी प्रकार जब वेदों का प्रचार हो जाएगा तो आधुनिक धर्म शास्त्रों के पारस्परिक झगड़े भी मिट जाएंगे | रात की अंधेरी में दीपों के होते हुए भी वस्तुओं की आकृति में थोड़ा सा भेद प्रतीत हुआ करता है | सूर्य के प्रकाश में वह भ्रांति दूर हो जाती है | धार्मिक पुस्तकों पर आजकल लोगों का अवलम्बन है जैसे मुसलमान का कुरान, ईसाईयों का बाईबिल | ये सब पुस्तकें इनके लिखने वालों ने अपने समय की कुछ विपत्तियों को दृष्टि में रखकर लिखी थीं | जिनमें उन-उन देशों या उन-उन समयों की और संकेत था | अतः उनका क्षेत्र भी संकुचित था | वह हर समय अथवा हर युग के उपयुक्त न थीं | वेदों में जिस धर्म का प्रतिपादन है वह सभी देशों और सभी कालों में सत्य ठहरता है | इसी को सत्य या सनातन धर्म कहते हैं | हर देश और समय के लोग इसका अनुसरण कर सकते हैं | इसीलिए आर्यसमाज वेदों के पठन, पाठन और श्रवण, श्रावण को हर एक का कर्त्तव्य बताता है |
शेष सात नियम मनुष्यों के साधारण सदाचार तथा व्यवहार से सम्बन्ध रखते हैं | सबसे पहली बात यह है कि आर्यसमाज किसी देश विशेष, नगर विशेष या प्रान्त विशेष के लिए नहीं है | संसार का उपकार करना इसका परम धर्म है | संसार में सब कुछ आ जाता है | जहां तक हमारी, हमारे ज्ञान की या हमारी शक्ति की पहुंच हो | आर्यसमाज न केवल हिन्दुओं के सुधार के लिए है, न केवल मुसलमानों, न केवल ईसाइयों के, आर्यसमाज की सहानुभूति सबके साथ है | वह सबसे प्रेम करता है और जो कोई आर्यसमाज के प्रेम का उत्तर प्रेम से देना चाहता है उसकी सहायता के लिए बिना भेद-भाव के उद्यत है | और सदा उद्यत रहना चाहिए | आर्यसमाज के लिए सब मनुष्य कहलाते हैं | वे सब बिना जाति, रंग, जन्म या लिंग भेद आर्यसमाज में प्रविष्ट हो सकते हैं, यदि उनको समझ में आ जाए कि आर्यसमाज के सिद्धान्त और मन्तव्य अच्छे और मनुष्य के जीवन के लिए आवष्यक हैं | |
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